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नन्हें पंख ऊँची उड़ान

अजय जनमेजय

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3720
आईएसबीएन :81-89182-89-7

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प्रस्तुत है कहानी संग्रह...

nanhe pankh oonchi uran Do. Ajay Janmejay

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मेरी अपनी बात

‘सृजन’ सम्मान 2000 के सिलसिले में हिन्दी दिवस पर मेरा सहारनपुर जाना हुआ। उस कार्यक्रम की अध्यक्षता आदरणीय श्री जयप्रकाश भारती जी ने की थी। अन्य उपस्थित साहित्यकारों में श्री कृष्ण शलभ, (संयोजक) डा. अश्वघोष, श्री अखिलेश प्रभाकर, श्री योगेश छिब्बर, श्री सुरेश तपन, श्री विनोद भृंग, श्रीमती इंदिरा गौड़, श्री हरिराम पथिक, श्री ओमप्रकाश नदीम मुख्य थे।

सम्मानोपरांत बालसाहित्य के बारे में अपने विचार रखते हुए मैंने सबका धन्यवाद ज्ञापित किया। रात्रिभोज पर श्री प्रभावक जी ने यह पूछकर एक तरह से लगभग मुझे चौंका दिया ‘अजय, गद्य में तुम्हारी कौन-कौन सी पुस्तकें आई हैं ?’ मेरे मना करने के बाद उन्होंने कहा, ‘जैसा मैंने तुम्हें बोलते हुए सुना है, उससे एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि तुम्हारे अंदर गद्य-लेखन की असीम संभावनाएँ हैं। मेरी बात ध्यान में रखना। इस ओर प्रयास करना ! मैंने उस समय यह कहकर बात ख़त्म की कि भविष्य में इसका पूर्ण ध्यान रखूँगा। वहां से बिजनौर आने पर फिर से बालचिकित्सक की व्यस्त दिनचर्या में फँसकर रह गया। यह बात भी आई-गई हो गई !

बाल-कविताओं का दूसरा संकलन नन्हे-मुन्ने पाठकों के सामने प्रस्तुत करते समय तक मुझे तनिक भी आभास नहीं था कि एक दिन मेरी रुचि बालकहानी या बाल नाटक लिखने की तरफ भी आ सकती है; कारण भी साफ था कि गद्य लेखन की ओर न तो मेरा रुझान था और न ही अभ्यास। किंतु कई बार ऐसा लगता था कि मेरे पास अभी ऐसा बहुत कुछ है, जो है तो बच्चों के लिए ही पर पद्य की किसी शैली में व्यक्त नहीं हो पा रहा है।

अब मैं अपनी इस मानसिक स्थिति का विश्लेषण करता हूँ तो लगता है कि साहित्यकार के लिए अपने प्रत्येक विचार को किसी एक निश्चित विधा में व्यक्त करना संभव नहीं होता। कई विचार गद्य के लिए उपयुक्त होते हैं तो कई पद्य के लिए जो विचार पद्य की किसी विधा में प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया जा सकता है, ज़रूरी नहीं कि वही विचार अच्छे ढंग से गद्य में भी लिपिबद्ध हो सके।

साहित्य की अलग-अलग विधाओं का प्रचलन भी शायद इसी कारण हुआ हो। बाल-कविताओं की दोनों पुस्तकों ‘अक्कड़-बक्कड़ हो हो हो’ एवं हरा ‘समुदंर गोपी चंदर’ आने के उपरांत मुझे लगा कि मेरी अभिव्यक्ति कविता के अलावा किसी अन्य रूप की माँग कर रही है। स्वयं को टटोला तो लगा कि कुछ ऐसी बातें हैं, कुछ ऐसे विचार हैं, जो कहानी की विधा में प्रभावपूर्ण ढंग से व्यक्त किए जा सकते हैं। बाल कहानी लिखते समय मेरे ध्यान में प्राचीन बोधकथाओं की शैली प्रमुख रही। सभी कहानियाँ एक क्रम, एक सूत्र में बँधी हैं। दृश्य और घटनाएँ बदलती हैं किंतु पात्र वही रहते हैं। बोधकथाओं की तरह मैंने यह भी प्रयास किया है कि इनमें जो सीख या शिक्षा हो, वह सहज ढंग से बच्चों तक पहुँचे, पर साथ ही बच्चों का मनोरंजन-पक्ष भी बना रहे। मैं व्यक्तिगत रूप से यह दावा नहीं करता कि मैं बाल-कहानी लेखन में कितना सफल हुआ हूँ, इसका निर्णय तो सुधी पाठक या समालोचक ही सही ढंग से कर सकते हैं !

मेरी बाल-कविताओं के दूसरे संग्रह को नन्हे-मुन्ने पाठकों ने जिस तरह अपनाया, साहित्यकारों और समालोचकों ने सराहा, समीक्षकों ने अपनी सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कीं, उसने मुझे और अच्छा प्रयास करने की प्रेरणा दी है। मैं इस सबके लिए उन सबका हार्दिक आभारी हूँ।
मेडिकल कालेज के समय के कुछ साथियों को यहाँ याद करना मैं अपना कर्त्तव्य मानता हूँ, जिन सबके धैर्य और प्रेरणा से मैं लेखन के रुझान को व्यस्त एवं जटिल चिकित्सकीय पाठ्यक्रम के दौरान भी जीवित रख सका। जो नाम यादों की गठरी से बाहर आते रहे हैं, वे हैं-डा. अशोक गुप्ता, डा. अजय शर्मा, डा. विनोद मलिक, जे.पी. स्वामी, डा. प्रमोदकुमर (दिल्ली), डा. सुशील वर्मा (शिवपुरी), डा. मुकेश त्यागी, डा. सुनील गुप्ता (रुड़की), डा. अजीत यादव (गुडगाँव), डा. के. एन श्रीवास्तव (हरियाणा), डा. ओमप्रकाश लाल (डालमियानगर), डा. अनिल पाटिल (साँगली महा.), डा. रमेश (मुंबई), डा. मोहनलाल अग्रवाल (दुर्ग), डा. महेंद्रकुमार (सहारनपुर), डा. वेदव्यास सिद्दू (बरेली), डा. प्रवीनकुमार, डा. पवन जैन, डा. इरविन गर्ग (मुजफ़्फ़रनगर)।

मेरी पहली पुस्तकों की भाँति इस पुस्तक को भी सुंदरतम रूप में आप सब तक पहुँचाने के लिए मैं अपने अग्रज एवं प्रसिद्ध साहित्यकार डा. गिरिराजशरण अग्रवाल, बिटिया रुनझुन (अनुभूति) एवं हिंदी साहित्य निकेतन का आभारी हूँ।
प्रथम श्रोता एवं आलोचक होने का दायित्व मेरी धर्मपत्नी श्रीमती पुष्पा ने ही निर्वहन किया है। पुत्र माहुल, पुत्री मनु के बालसुलभ सुझावों ने कहानियों को कई सुखद मोड़ दिए हैं। प्रिय हर्ष, अर्जुन, मानसी एवं नन्हीं खुशी की मुस्कान मुझे हमेशा तरोताज़ा रखने में सक्षम रही है।

स्कूल आफ़ निश्तर ख़ानक़ाही का विद्यार्थी होने का जो सुअवसर परम आदरणीय निश्तर खानकाही जी ने मुझे प्रदान किया, उसके लिए आभार व्यक्त करने के हेतु मेरे पास शब्द बहुत कम हैं।

बाल-साहित्य संवर्धन में लगे अपने सभी अग्रज बाल-साहित्यकारों को हार्दिक नमन करते हुए मैं आदरणीय डा. शंभूनाथ तिवारी एवं श्री संजीव जायसवाल ‘संजय’ का आभारी हूँ, जिन्होंने अपनी सम्मतियों से इस पुस्तक को समृद्ध किया है।
बिजनौर में लेखन की सतत प्रेरणा के लिए मैं परम आदरणीया अम्मा जी (श्रीमती प्रकाशवती), अग्रज श्री विजय चौधरी, श्री शकील बिजनौरी, श्री सुरेंद्र (मामूजी), श्री भोलानाथ त्यागी, डा. कुलदीप रस्तोगी, अनुज श्री जितेंद्र चौधरी, डा. बटोही, डा. मनोज अबोध, श्री अनमोल शुक्ल, श्री राजेश रस्तोगी, डा. सूर्यमणि, डा. अनिल चौधरी, श्री अनूप जनमेजय, श्री प्रमेंद्र रामा का आभारी हूँ।

हाल फिलहाल में आई जनगणना रिपोर्ट जिस तरह संकेत करती है, उससे यह बात तो बिल्कुल साफ है कि आने वाला भारत बूढ़ों का नहीं, अपितु बच्चों का भारत होगा, ऐसे में बाल साहित्यकारों का दायित्व और भी बढ़ गया है। मेरी दृष्टि में मनोरंजन व चरित्र-निर्माण दो ऐसे केंद्रीय बिंदु है, जो बाल साहित्य को स्तरीय बनाते हैं। मैंने इसी बात को ध्यान में रखते हुए यह प्रयास किया है। मैं इस प्रयास में कहाँ तक सफल हुआ हूँ, इस विषय में आप सब सुधीजनों की प्रतिक्रियाओं की उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी।

डॉ. अजय जनमेजय

काश एक कहानी और होती.........


‘आओ बच्चो सुनो कहानी, एक था राजा एक थी रानी’ दादा-दादी के मुँह के निकलनेवाला यह वाक्य सिर्फ एक वाक्य नहीं, अपितु एक पासवर्ड था, जिसके खुलते ही बच्चों का मिलना शुरू हो जाता था अनुभवों एवं ज्ञान का अनुपम ख़जाना। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही एक समृद्धिशाली विरासत।

दरअसल, बच्चे किसी भी बात को बहुत आसानी से सीख सकते हैं किंतु उन्हें कुछ सिखा पाना बहुत कठिन होता है। क्योंकि वे स्वभाव से चंचल होते हैं। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने क़िस्सों कहानियों एवं लोक-कथाओं को बच्चों को कुछ सिखाने वह शिक्षा देने का माध्यम बनाया था। इनके माध्यम से वे अपने जीवन भर के अनुभवों जिन्हें सीखने में उन्होंने असाध्य श्रम एवं समय लगाया था, अत्यंत सहज ढंग से बच्चों के अंतर्मन में उतार देते थे। इतनी आसानी से कि ग्रहण करने वाले को पता ही नहीं चल पाता था कि उसे कुछ सिखलाया जा रहा है। पंचतंत्र जातक कथाएँ एवं ईसप की कहानियाँ मानवीय गुणों, संवेदनाओं अनुभवों एवं ज्ञान-विज्ञान के अक्षय भंडार हैं, जिनके माध्यम से सदियों से बच्चो को जीवन के दर्शन से परिचित कराया जाता रहा है।

किंतु अचानक आज विरासत की यह गौरवशाली परंपरा लड़खड़ाने लगी है। संयुक्त परिवारों की श्रृंखला टूटने से बच्चों से दादा-दादी का सान्निध्य छिन सा गया है। जहाँ ऐसा नहीं हुआ है, वहाँ टी.वी. और इंटरनेट जैसे संचार माध्यामों ने घुसपैठ कर ली है। आज न तो किसी में अपने अनुभवों को अगली पीढ़ी के साथ बाँटने की ललक है और न ही अगली पीढ़ी में पिछली पीढ़ी से कुछ ग्रहण करने की उत्कंठा। ऐसा क्यूँ हुआ, क्या यह उचित है और इसके दूरगामी परिमाण क्या होंगे ? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर यदि आज नहीं खोजे गए तो बहुत देर हो जाएगी। टी.वी. से इंटरनेट और इंटरनेट से अश्लील वेबसाइट्स की ओर फिसलता हुआ बचपन एक ऐसी घुटन-भरी अंधेरी सुरंग में पहुँच जाएगा, जहाँ सिर्फ पतन ही एकमात्र मंजिल शेष रह जाएगी। इसके लिए आनेवाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ नहीं कर पाएँगी।

अतः परिवर्तन के इस दौर में आवश्यकता है बच्चों के लिए ऐसे साहित्य के सृजन की, जो सामयिक होने के साथ-साथ मनोरंजक और शिक्षाप्रद भी हो, जिससे अपनी माटी की सुगंध आती हो। एक ऐसा साहित्य जो बच्चों में पठन-पाठन की रुचि जाग्रत करने के साथ-साथ उनकी कल्पनाशीलता एवं बुद्धिशीलता का भी विकास कर सके।

किंतु यक्ष प्रश्न यह है कि यह कार्य करेगा कौन ? भौतिकवाद के इस युग में जहाँ बाजारवाद हर चीज़ पर हावी हो, वहां निश्चय ही यह अपेक्षा स्थापित दिग्गजों से नहीं की जा सकती। क्योंकि उन्होंने बाल साहित्य को भी एक प्रोडेक्ट बना दिया है। एक ऐसा झुनझुना जिसे नौनिहालों को बहलाने के बजाय पैसों की बरसात करने के लिए बजाया जा रहा है। किताबों को ऐन-केन-प्रकारेण सरकारी खरीद में खपा देना जिनका एकमात्र उद्देश्य हो, उनसे साहित्य सेवा की आशा व्यर्थ है। यह दायित्व तो वह निभा सकता है, साहित्य जिसके लिए आराध्य हो, जीवकोपार्जन का साधन नहीं।

ऐसे ही एक व्यक्ति हैं हमारे अनुज डा. अजय जनमेजय, जो पेशे से शिशुरोग विशेषज्ञ भी हैं। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि बच्चों की नब्ज़ थामते-थामते वे शिशुरोग विशेषज्ञ से बाल-मन विशेषज्ञ भी बन गए हैं। तभी उनकी लेखनी से बच्चों के लिए एक से बढ़कर एक सौग़ातों की बरसात हो रही है। पहले ‘अक्कड़-बक्कड़ हो हो हो’ फिर ‘हरा समंदर गोपी चंदर’ और अब ‘नन्हे पंख ऊँची उड़ान’। हाँ, इस बार उनकी भूमिका थोड़ी सी बदली हुई है। पहले दोनों संग्रहों में उन्होंने एक कवि के रूप में बच्चों के अंतर्मन में गुनगुनाया था तो इस बार वे एक कहानीकार के रूप में उनकी कोमल भावनाओं को गुदगुदा रहे हैं, उनकी कल्पनाओं को एक व्यापक फलक प्रदान कर रहे हैं।

इस संग्रह की लड़ी में कुछ ग्यारह मनके हैं, जिन्हें अत्यंत कुशलता के साथ एक दूसरे से पिरोया गया है। कहानियों का मुख्य पात्र ‘ची-चूँ’ नामक चिड़िया का एक नन्हा सा बच्चा है, जिसने दुनिया में अभी-अभी आँखें खोली हैं। यह दुनिया कैसी है, इसके लोग कैसे हैं, ‘चीं-चूँ’ को अभी नहीं पता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है, उसके साथ-साथ बच्चों को भी ज्ञान होता चलता है। हाथी कैसा होता है, दोस्ती क्या होती है, विपत्ति में सूझबूझ से काम लेना चाहिए, दुनिया में कोई भी चीज अनुपयोगी नहीं होती है, प्रेम और उपकार का फल मीठा होता है, बुरे को भी प्यार से बदला जा सकता है, समय की पाबंदी कितनी फ़ायदेमंद होती है, मनुष्य और पशु-पक्षी एक-दूसरे के शत्रु नहीं अपितु मित्र हैं। इन तमाम बातों की शिक्षा अलग-अलग कहानियों में अत्यंत मार्मिक व सशक्त ढंग से बच्चों को दी गयी है। प्रत्येक कहानी में एक समस्या है, जिसे ‘ची-चूँ’ अपनी बुद्धिमानी से हल करता है। वह सीखता भी है और सिखलाता भी है।

वैश्वीकरण के इस युग में आज हर आदमी गाँव की छोड़कर शहर की ओर अंधाधुंध भागा चला जा रहा है। इस कारण आज बाल कहानियाँ भी शहरी वातावरण में केंद्रित होकर रह गयी हैं। डा. जनमेजय ने इस कमी को भी दूर करने की कोशिश की है। गाँव के तालाब के माहौल और उसकी उपयोगिता की बात हो या मौसम का मनमोहक चित्रण, आम और जामुन से लदे वृक्षों पर उछल-कूद मचाने का आनंद हो या फसलों के पकने का त्यौहार, प्रत्येक का चित्रण उन्होंने इतने सशक्त ढंग से किया है कि दृश्य आँखों के आगे जीवंत हो जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे हम इसी माहौल में पहुँच गए हों। कुछ उदाहरण देखिए ‘होली बीत जाने के बाद भी रंगों के त्योहार का रंग हल्का नहीं हुआ था। गेहूँ की फसल पकने के कारण खेतों में दूर-दूर तक सुनहरे रंग की चादर बिछी हुई थी।’ तथा आम पर बौर आते ही पूरे बाग़ में चहल-पहल बढ़ गई थी। पेड़ों पर छोटी-छोटी अमियाँ आ गई थीं, जिन्हें पक्षी कुतरते रहते।’ ऐसे जीवंत चित्राकंन से संग्रह की सुंदरता में चार चाँद लग गए हैं।

इस संग्रह की कहानियों का ताना-बाना जितने स्वाभाविक ढंग से बुना गया है, उनका प्रस्तुतीकरण भी उतना ही सशक्त है। इसलिए बच्चे हर कहानी में ची-चूँ से एक जुड़ाव महसूस करते हैं। सच कहा जाए तो ची चूँ उन्हें कोई काल्पनिक पात्र नहीं, अपितु अपना ही प्रतिनिधि महसूस होता है, जो बिलकुल उन्हीं की तरह सोचता है, जिसमें उन्हीं की तरह कुछ सीखने और कुछ कर गुज़रने की ललक है। पाठक का पात्रों के साथ जुड़ाव ही किसी लेखक की सफलता की निशानी होती है। मुझे खुशी है कि डा. जनमेजय इस परीक्षा में खरे उतरे हैं। मुझे ही नहीं अपितु संपूर्ण बाल-साहित्य जगत् को उनसे बहुत आशाएँ हैं।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि डा. जनमेजय के दोनों कविता-संग्रहों की ही तरह उनका प्रथम कहानी-संग्रह ‘नन्हे पंख और ऊँची उड़ान भी बच्चों में अत्यंत लोकप्रिय होगा और सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित करेगा। क्योंकि इस संग्रह की सभी कहानियों का एक उद्देश्य है, उनमें एक संदेश है और उनकी भाषा अत्यंत सरल व रसपूर्ण है, जिसके कारण एक बार पढ़ना प्रारंभ करने के बाद पूरा बढ़े बिना मन नहीं मानता। यह डा. जनमेजय की सशक्त लेखनी की सफलता है कि अंतिम पृष्ठ पलटते ही मुँह से अनायास निकल जाता है कि काश एक कहानी और होती...।

संजीव जायसावल ‘संजय’

कहानी चीं-चूँ की


एक बाग़ था। उसमें तरह-तरह के पेड़ थे। उन्हीं में से आम के एक पेड़ पर चुनचुन का छोटा, मगर सुंदर-सा घर था। यूँ तो उसका घर तिनकों, घास-फूस और पत्तियों से बना था, पर वह इतने सलीक़े से बनाया गया था कि उसकी कारीगरी देखते ही बनती थी। उसमें रहनेवालों के लिए वह हर तरह से आरामदायक था। उसी घर में चिड़िया चुनचुन के साथ उसके दो छोटे-छोटे बच्चे भी रहते थे। इनके नाम थे चीं-चीं और चीं-चूँ।

चीं-चीं सामान्य चिड़ियों के बच्चों की तरह सुबह देर से उठता, अपने पंख खोलकर काफी देर तक इधर-उधर फुदकता और लौटकर फिर अपनी माँ के पास आ जाता। पर चीं-चूँ की आदतें बिल्कुल अलग तरह की थीं। वह तो बहुत सवेरे उठ जाता। अपने पंखों को ताजा हवा में खोलकर मुँह से चीं-चीं बोलते हुए सबका मन लुभाता। वह पेड़ की एक डाल से दूसरी डाल पर फुदकता रहता। आराम करना उसे बिल्कुल न सुहाता। वह हरदम कुछ-न-कुछ नया करने की सोचता रहता।
जब ये दोनों बच्चे थोड़े बड़े हुए तो उड़कर अपने लिए चुग्गा चुगने जाने लगे। शाम के समय दोनों बच्चे अपने घोंसले में लौट आते। चिड़िया तथा चिड़ा अपने दोनों बच्चों से बेहद ख़ुश थे।

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